" महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रम् " में देवी की महालक्ष्मी , महासरस्वती तथा महादुर्गा के रूप में स्तुति की गई है । महिषासुर व अन्य दैत्यों के साथ देवी के युद्ध का उल्लेख श्री शंकराचार्य द्वारा रचित इस स्तोत्र में मिलता है । देवी के चण्डी रूप के अलावा उनके रमणीय रूप के भी दर्शन इस स्तोत्र में होते हैं । इस पौराणिक उपाख्यान में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्रिय रहने का संदेश निहित है । महिष यानि भैंस वास्तव में जड़ता की प्रतीक है , जड़ता मनुष्य को नया कुछ करने या वर्तमान स्थिति को बदलने का उत्साह उत्पन्न नहीं होने देती ।
मनुष्य सामर्थ्य होने के पश्चात् भी अपनी नियति को बदलने का साहस नहीं जुटा पाता । 'जैसा है वैसा ठीक है या मैं क्या करूं' ? जैसे मनोभावों की असुर सेना हमें अर्थात हमारे भीतर बैठे देवताओं को अत्याचार सहन करने के लिए विवश कर देती है , उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर देती है । किन्तु जब वह दृढ निश्चय रुपी त्रिदेवों के पास जाता है तो भीतरी शक्ति का प्रादुर्भाव (जन्म) हो जाता है, और वह सिंह की पीठ पर सवार उस शूरवीर (शक्ति रूपिणी देवी ) की भांति होता है, जो अकेला ही आसुरी या तामसिक शक्तियों के साथ युद्ध कर विजयी होता है । यह शक्ति सब के भीतर निहित है ।
यह देवी कामनाओं को देने वाली हैं और जड़ता के भाव का विनाश करतीं हैं । मनुष्य के अन्तःकरण के भीतर समाई हुई दैवीय शक्तियों का आह्वान करना व उन्हें जगाना अत्यंत आवश्यक है । अपने मनो-राज्य से भटका हुआ व्यक्ति अपने स्वर्ग के राज्य से भटके हुए इंद्र के समान है , अतः जड़ता से लड़ने के लिए देह के प्रत्येक अंग से, मन-मस्तिष्क से चैतन्य के तेजांशों का निकलना अति आवश्यक है । मनुष्य द्वारा जगाई हुई यही चेतना उसको अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कर उसे जड़ता और तामसिक भाव रुपी महिषासुर पर विजय दिलाती है और उसका खोया हुआ स्वर्ग पुनः उसे प्राप्त होता है । अन्यथा नकारात्मक भावों और भटकाव की स्थितियों से जूझते-जूझते वर्षों बीत जाते हैं, पर परिणाम कुछ नहीं निकालता । हम हर नए वर्ष के आरम्भ में कुछ न कुछ संकल्प लेते हैं और फिर उसे कार्यान्वित न करके उसे भूल जाते हैं और महिषासुर जीत जाता है । उस पर विजय पाने के लिए आवश्यकता है आध्यात्मिक शक्ति की, जो हमें चेतना से जोड़ती है ।
*इसका महात्म्य इससे ही पता चलता है कि यह स्तोत्र माँ वैष्णोदेवी की आरती के समय भी गाया जाता है*
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