ओराँव या 'कुड़ुख' भारत की एक प्रमुख जनजाति हैं। ये भारत के केन्द्रीय एवं पूर्वी राज्यों में तथा बंगलादेश के निवासी हैं। इनकी भाषा का नाम भी 'उराँव' या 'कुड़ुख' है जो द्रविण भाषा परिवार से संबन्धित है।
अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको 'कुरुख' नाम से वर्णित करता है।
बिहार/छत्तीसगढ़ में 'उराँव' नाम का प्रचलन अधिक है।
अधिकांश उराँव इस समय राँची जिले के मध्य और पश्चिमी भाग में रहते हैं।
उराँव समूह के प्रथम वैज्ञानिक अध्येता स्वर्गीय शरच्चन्द्र राय का मत है कि बिहार में ये पहले शाहाबाद जिले के सोन और कर्मनाशा नदियों के बीच के भाग में रहते थे। यह क्षेत्र 'कुरुख देश' के नाम से जाना जाता था। कुरुख शब्द संभवत: किसी मूल द्रविड़ शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है।
इस समूह की अर्थव्यवस्था मूलत: कृषि पर अवलंबित है। आखेट द्वारा भी वे अंशत: अपनी जीविका अर्जित करते हैं। जाल और फंदों द्वारा वे जंगली जानवर और मछलियाँ पकड़ते हैं।
उराँव अनेक गोत्रों में विभाजित हैं। गोत्र के भीतर वैवाहिक संबंध निषिद्ध होते हैं। प्रत्येक गोत्र का अपना विशिष्ट गोत्रचिह्न होता है
राय के अनुसन्धानों द्वारा ६८ गोत्रों की सूची प्रात हुई है। इनमें से १६ के गोत्रचिह्न जंगली जानवरों पर, १२ के पक्षियों पर, १४ के मछलियों तथा अन्य जलचरों पर, १९ के वनस्पतियों पर, २ के खनिजों पर, २ के स्थानीय नामों पर तथा१ का सर्पो पर आधारित है। शेष दो विभाजित गोत्र हैं। प्रत्येक गोत्र अपने आपको एक विशिष्ट पूर्वज की संतान मानता है, यद्यपि गोत्रचिह्न को ही पूर्वज मानने का विश्वास उनमें नहीं पाया जाता। गोत्रचिह्न के संबंध में उनका विश्वास है कि उनके पूर्वजों को उससे प्राचीन काल में कोई न कोई अविस्मरणीय सहायता मिली थी जिसके कारण समूह के एक खंड का नाम उससे अविभाज्य रूप से संबद्ध हो गया। प्रत्येक गोत्र अपने गोत्रचिह्नवाले प्राणी, वृक्ष अथवा पदार्थ का किसी भी तरह उपयोग नहीं करता। उसे किसी भी प्रकार हानि पहुँचाना भी उनके सामाजिक नियमों द्वारा वर्जित है। यदि उनका गोत्रचिह्न कोई प्राणी या पक्षी है तो वे न तो उसका शिकार करेंगे और न उसका मांस खाएँगे। इसी तरह यदि उनका गोत्रचिह्न कोई वृक्ष है तो वे उसकी छाया में भी नहीं जायेंगे।
विवाह सदा गोत्र के बाहर होते हैं। तीन पीढ़ियों तक के कतिपय रक्तसंबंधियों और वैवाहिक संबंधियों में भी विवाह का निषेध होता है।
परिवर्तनशील उरांव समय के परिवर्तन के साथ खुद को उसमें ढाल लेते हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण इनकी जीवनशैली में बाधा आने लगी तो उरांव जनजाति के लोग खेती-किसानी करने लगे। कुछ परिवारों ने मुर्गीपालन भी करने लगे। उरांव जनजाति की महिलाएं भी श्रमजीवी होती हैं और परिवार की आय में हाथ बंटाने के लिए वे भी आयमूलक कार्य करती रही हैं। घर-परिवार का कार्य निपटा कर जंगलों में जाकर तेंदूपत्ता, सरई बीज, महुआ तथा चिरौंजी आदि एकत्र करने का कार्य करती हैं
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