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उरांव जनजाति -
उरांव जनजाति में गोदना प्रथा एक ऐतिहासिक घटना से जुडी हुई है। उरांव बोली कुडूख में इसे बन्ना चखरना कहते हैं। इसका मतलब श्रंगार गोदना होता हैं। उरांव जनजाति की महिलायें अपने माथे पर तीन खडी लकीर अर्थात एक सौ ग्यारह (111) रोहतसगढ़ (पटना बिहार) लडाई की यादगार में गुदवाती हैं। उरांव जनजाति के लोग बताते हैं कि रोहतसगढ़ कीला में औरंगजेब के शासन काल के समय मुगल सेना की एक टुकडी तीन बार अक्रमण की। जिसमें महिलायें पुरुष वेष-भूषा में वीरता पूर्वक लडते हुए हरायीं थीं। लुंदरी ग्वालन ने मुगल सेना को बताया कि पुरुष भेष-भूषा में महिलायें ही लडाई करती हैं। इस बात की जानकारी मिलते ही मुगल सेना पुनः आक्रमण की और वे विजयी हुये। हारने के बाद उरांव लोग दास्ता स्वीकार नहीं किये और पलामू से राँची व सरगुजा में बस गये। यही कारण है कि 12 वर्ष में एक बार रोहतसगढ़ की याद में उरांव जनजाति के लोग जनीषिकार उत्सव मनाते हैं। जिसमें केवल महिलायें भाग लेती हैं। इस उत्सव के दौरान महिलायें पुरुष भेष-भूषा में शिकार करती हैं। और अपने माथे पर तीन खडी लकीर रोहतसगढ की याद में गुदवाती हैं। उरांव जनजाति की इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख श्री शिवतोष दास की पुस्तक ” स्वतंत्रता सेनानी वीर आदिवासी ” में मिलता है।
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