This is my tribute to the most underrated and powerful warrior of Mahabharat. Let's take a look to the History of this amazing character from MahaKavya....
Jai Shree Krishna ❤️❤️❤️
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Lyrics:
महाभारत का एक अनसुना सत्य हूं
क्या सुनने को तुम सज्ज हो,
गाथा सुनाता हूं एक अनकही
जिससे तुम अनभिज्ञ हो।
उस महाभारत के रण में हर वीर योद्धा
किसी देवता का अंश था,
मैं वह साधारण मनुष्य हूं
जिस पर गर्व करता पूरा यदुवंश था।
वृष्णि वंश का था लाडला
नाम से सात्यकी कहलाया था,
बड़े-बड़े योद्धाओं को रण में मैंने
बौना सा ठहराया था।
प्रचंड वेग बाणों का ऐसा
गगन छिद्रित हो जाता था,
धनुष की केवल टंकार मात्र से
शत्रु मूर्छित हो जाता था।
मित्र धर्म क्या होता है
यह मैंने ही तो बतलाया था,
मैं ही था जिसने शांति सभा में दुर्योधन को
धर्म का पथ दिखलाया था।
मेरे रण कौशल को देख-देख
सारा कौरव दल थर्राया था,
भूले हो तुम उसे जो रणभूमि में सबसे पहले
सेना लेकर आया था।
भीष्म संग जो युद्ध हुआ तो
पीछे उन्हें हट जाना पड़ा,
और दूसरी बार भी उनकी रक्षा हेतु,
आलंबुश को आना पड़ा।
फिर आलंबुश की माया को भी
इंद्रास्त्र से मैंने हटाया था,
कौरव पक्ष का लगभग हर एक योद्धा मैंने
समरांगण में हराया था।
अश्वत्थामा ने जब समरांगण में
कदम मेरी और बढ़ाए थे,
मेरे बानो का स्वाद चखकर उनके
होश ठिकाने आए थे।
सुध बुध खोई अश्वत्थामा ने
और शस्त्र भी उनके मौन थे,
फिर पुत्र की रक्षा हेतु रणभूमि में
मेरे समक्ष खड़े गुरु द्रोण थे।
मेरे महान गुरु द्रोण भी उस दिन
मेरी धनुर्विद्या के कायल थे,
और घाव नहीं वो आभूषण थे
जब गुरु हुए अपने शिष्य के हाथों घायल थे।
अंगराज थे उन्हें छोड़कर कोई कुरु योद्धा
मुझे ना जीत पाया था,
पर अंगराज को भी मैंने रणभूमि में
कितनी ही बार हराया था।
जब जयद्रथ वध करने हेतु
अर्जुन को आगे जाना था,
तब सम्राट युधिष्ठिर की रक्षा हेतु गांडीवधारी ने
मुझको अपने समान ही माना था।
प्रचंड रूप में गुरु द्रोण जब
उत्तम प्रतिद्वंदी से वंचित थे,
मेरे बाणों का स्वाद चखा
और हुए वो रक्तरंजित थे।
जीवन में विद्या का महत्व
ये सात्यकी तुम्हें सिखलाता है
जब गुरुकुल के अपने बालसखा जिष्णु को
गुरु वो अपना बनाता है।
हर इक योद्धा था हारा मुझसे
युद्ध ऐसे थे घमासान किए,
भीम अर्जुन की प्रतिज्ञा का मान रखकर मैने
सबको ही प्राणदान दिए।
पूरा दिन युद्ध के कारण जब मैं
थक कर चूर हो गया,
भूरिश्रवा भी मौका देखकर
पशु की भांति क्रूर हो गया
हारा में जो भूरिश्रवा से
वह भी शिव का एक वरदान था,
अचेत योद्धा को चला मारने
भूरिश्रवा को धर्म का तनिक ना भान था।
इसी अधर्मी समाज के कारण
गुडाकेश ने अपना पुत्र गंवाया था,
और फिर से वही अधर्म देखकर
भूरिश्रवा पर तीर चलाया था।
और सब ने रोका फिर भी मैंने
भूरिश्रवा का मस्तक भू पर गिराया था,
अनर्थ हुआ था मुझसे भी
मैंने विवेक अपना गंवाया था।
दुर्योधन भी तो मित्र था मेरा
पर मैं साथ था गांडीवधारी के,
हर पांडव ही श्रेष्ठ था बंधु
तभी साथ उनके कृष्ण मुरारी थे।
अब धर्म कर्म ही श्रेष्ठ है तो फिर
क्यों अधर्म का भद्दा जाल बुनूं,
अरे क्यों ना फिर दुर्योधन कर्ण त्याग कर
गांडीवधारी संग गोपाल चुनूं।
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