@AlkaChaudharyChoudhary भगवद गीता का पहला अध्याय अर्जुन विशाद योग उन पात्रों और परिस्थितियों का परिचय कराता है जिनके कारण पांडवों और कौरवों के बीच महाभारत का महासंग्राम हुआ। यह अध्याय उन कारणों का वर्णन करता है जिनके कारण भगवद गीता का ईश्वरावेश हुआ। जब महाबली योद्धा अर्जुन दोनों पक्षों पर युद्ध के लिए तैयार खड़े योद्धाओं को देखते हैं तो वह अपने ही रिश्तेदारों एवं मित्रों को खोने के डर तथा फलस्वरूप पापों के कारण दुखी और उदास हो जाते हैं। इसलिए वह श्री कृष्ण को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करते हैं। इस प्रकार, भगवद गीता के ज्ञान का प्रकाश होता है। अनुवाद
।।1.1।। धृतराष्ट्र बोले (टिप्पणी प0 1.2) - हे संजय! (टिप्पणी प0 1.3) धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरेे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया?
टीका
1।।व्याख्या-- 'धर्मक्षेत्रे' 'कुरुक्षेत्रे'-- कुरुक्षेत्र में देवताओं ने यज्ञ किया था। राजा कुरु ने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होने से तथा राजा कुरु की तपस्याभूमि होने से इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है।
यहाँ ॓'धर्मक्षेत्रे' और 'कुरुक्षेत्रे' पदों में 'क्षेत्र' शब्द देने में धृतराष्ट्र का अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियों की भूमि है। यह केवल लड़ाई की भूमि ही नहीं है, प्रत्युत
तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरह का लाभ हो जाय-- ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मति लेकर ही युद्ध के लिये यह भूमि चुनी गयी है।
संसार में प्रायः तीन बातों को लेकर लड़ाई होती है-- भूमि, धन और स्त्री। इस तीनों में भी राजाओं का आपस में लड़ना मुख्यतः जमीन को लेकर होता है। यहाँ 'कुरुक्षेत्रे' पद देने का तात्पर्य
भी जमीन को लेकर ल़ड़ने में है। कुरुवंश में धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होने से दोनों का कुरुक्षेत्र में अर्थात् राजा कुरु की जमीन पर समान हक लगता है। इसलिये (कौरवों द्वारा पाण्डवों को उनकी जमीन न देने के कारण) दोनों जमीन के लिये लड़ाई करने आये हुए हैं।
यद्यपि अपनी भूमि होने के कारण दोनों के लिये 'कुरुक्षेत्रे' पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक
संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है, तो वह धर्म को सामने रखकर ही होता है। युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि-- तीर्थभूमि में ही करते हैं, जिससे युद्ध में मरने वालों का उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय। अतः यहाँ कुरुक्षेत्र के साथ 'धर्मक्षेत्रे' पद आया है।
यहाँ आरम्भ में 'धर्म' पद से एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भ के 'धर्म' पद में से 'धर्' लिया जाय और अठारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक
के 'मम' पदों से 'म' लिया जाय, तो 'धर्म' शब्द बन जाता है। अतः सम्पूर्ण गीता धर्म के अन्तर्गत है अर्थात् धर्म का पालन करने से गीता के सिद्धान्तों का पालन हो जाता है और गीता के सिद्धान्तों के अनुसार कर्तव्य कर्म करने से धर्म का अनुष्ठान हो जाता है।
इन 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' पदों से सभी मनुष्यों को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्म को सामने रखकर ही करना चाहिये। प्रत्येक कार्य
सबके हित की दृष्टि से ही करना चाहिये, केवल अपने सुख-आराम-की दृष्टि से नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में शास्त्र को सामने रखना चाहिये (गीता 16। 24)।
'समवेता युयुत्सवः'-- राजाओं के द्वारा बारबार सन्धि का प्रस्ताव रखने पर भी दुर्योधन ने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण के कहने पर भी मेरे पुत्र दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के मैं तीखी सूई की नोक-जितनी जमीन
भी पाण्डवों को नहीं दूँगा। (टिप्पणी प0 2.1) तब मजबूर होकर पाण्डवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र-- दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए हैं।
दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा रहने पर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा विशेषरूप से थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्ति का ही था। वह राज्य-प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से, न्याय से हो चाहे अन्याय
से, विहित रीति से हो चाहे निषिद्ध रीति से, किसी भी तरह से हमें राज्य मिलना चाहिये-- ऐसा उसका भाव था। इसलिये विशेषरूप से दुर्योधन का पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्ध की इच्छावाला था।
पाण्डवों में धर्म की मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्म में बाधा नहीं आने देंगे, धर्म के विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बात को लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परन्तु
जिस माँ की आज्ञा से युधिष्ठिर ने चारों भाइयों सहित द्रौपदी से विवाह किया था, उस माँ की आज्ञा होने के कारण ही महाराज युधिष्ठिर की युद्ध में प्रवृत्ति हुई थी (टिप्पणी प0 2.2) अर्थात् केवल माँ के आज्ञा-पालनरूप धर्म से ही युधिष्ठिर युद्ध की इच्छावाले हुये हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्य को लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्म को लेकर ही युयुत्सु बने थे।
'मामकाः पाण्डवाश्चैव'-- पाण्डव धृतराष्ट्र
को (अपने पिता के बड़े भाई होने से) पिता के समान समझते थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। धृतराष्ट्र के द्वारा अनुचित आज्ञा देने पर भी पाण्डव उचित-अनुचित का विचार न करके उनकी आज्ञा का पालन करते थे। अतः यहाँ 'मामकाः' पद के अन्तर्गत कौरव (टिप्पणी प0 3.1) और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी 'पाण्डवाः' पद अलग देने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों में तथा पाण्डुपुत्रों में समान भाव नहीं था। उनमें
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