Manika Lokapalaka - माणिका लोकपालका - by Shri Martand Manik Prabhu Maharaj sung by Anandraj Manik Prabhu
अर्थ: हे माणिक; हे स्वर्ग, मृत्यु और पाताल इन तीनों लोकों का पालन करनेवाले, हे भक्तजनों के दैन्य (दीनता) का हरण कर उन्हें ब्रह्मस्वरूप बना देनेवाले, हे सुर-असुर दोनों वर्गों द्वारा वंदित, हे विश्वप्रिय (विश्व जिसे प्रिय है अथवा विश्व को जो प्रिय है वह), हे गुरुआद्य (गुरुओं में प्रथम), मां पाहि - मेंरी रक्षा करो, दयां कुरु - दया करो॥ध्रु.॥
जो सत्य यानी सत्तारूप से जगत् की प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के रूप में विद्यमान है, वही अपने स्वयं के सुख के लिए जगन्निर्माणरूपी नृत्य करता है। जिसकी सत्ता से ही जगत् के सभी कृत्य अपने आप हो जाते हैं (जैसे राजा की सत्ता से ही राष्ट्र के सारे काम अपनेआप हो जाते हैं, राजा को स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता, वैसे ही प्रभु की सत्ता से उत्पत्ति, स्थिति और लय आदि व्यवहार अपने आप होते रहते हैं, उसके लिए प्रभु को कोई विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता) वह अस्ति-भाति-प्रिय (सच्चिदानंदरूप) है और जगत् की प्रत्येक जड और चेतन वस्तु को अंतर्बाह्य जाननेवाला है, क्योंकि जितनी जड वस्तुएँ हैं उनका निमित्त और उपादान कारण वही है और अजड यानी चेतन केवल एक ही है, जो वह स्वयं है, इसलिए वह सकल जडाजडवेत्ता है। वह परिपूर्ण है, उसके स्वरूप में किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं है, वह निर्गुण भी है और सगुण भी है, सत्त्व-रज-तम इन तीनों गुणों और सकल नाम-रूपों को भासित करनेवाला भी वही है, वही मन को एवं शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शादि भौतिक विषयों के समुदाय को भासित करता है। जो स्वयं एक रहकर भी अनंतरूपों में विश्व को प्रचोदित करता है (यदि वह अनंतरूप धारण न करे तो विश्व नाम की कोई वस्तु ही नहीं होगी), जो चित्शक्तिभूत (मायारूप) गुणसाम्य (सत्त्वरजतम इन तीनों गुणों की साम्यावस्था) में तरंग उत्पन्न कर इन गुणों को विविधरूपों में नचाता है, जो चतुर हरि निश्चल भी है और जो चंचल भी है, जो संतों और योगियों का विश्राम यानी आश्रय है, अखिल वेदांत यानी समस्त उपनिषद् जिस तत्त्व की खोज कर रहे हैं, वह तत्त्व वही है। उसका दातृत्व (देने की क्षमता) इतना महान् है कि उसनेे अत्रिमुनिरूप ब्रह्मा को ‘स्वयं दत्तोऽहं’ कहकर अपने आप को ही दान कर दिया। (इस चरण में प्रभु के आध्यात्मिकरूप का व्याख्यान हुआ है।)॥1॥
जो सुकुमार यानी अत्यंत रूपसंपन्न और युवा है, जो ब्रह्मसुख का सार है, जिसकी सुंदर मूर्ति ने जगत् कल्याण के लिए अवतार धारण किया है अथवा जिसने कल्याणक्षेत्र में अवतार धारण किया है, जिसके हाथ भक्तों को अभय-वर प्रदान करते हैं, वह प्रभु स्वच्छंद क्रीड़ा करता रहता है। जिसने खेल-खेल में ही भूगोल (ब्रह्मांड) की रचना कर डाली, जो अत्यंत लाड़-प्यार से अत्रि-अनुसूयारूप मनोहर-बया को ‘तात’ कहकर बुलाता है, जो स्वयं जगत् का पिता होकर भी केवल स्नेहवश अपने लौकिक माता-पिता को तात कहता है, उस प्रभु का पिता कहलाने का भाग्य जिस मनोहर को हुआ वह धन्य है और जिस बयादेवी को उस प्रभु की माता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ, वह जगज्जननी है, क्योंकि यह समस्त जगत् ही जिसका रूप है, उसकी माता को जगज्जननी कहना ही योग्य है। मोह के अंधकार का हरण करनेवाला एवं दुष्टों के गर्व का नाश करनेवाला नरहरि जिसका अनुज है, उस प्रभु का वर्णन करते करते शेष और बृहस्पति की वाणी भी थक गई। उस गुरुराज ने अपने अग्रज हनुमंत समेत अपनी त्रिगुणमयी मूर्ति को प्रगट किया, तात्पर्य यह कि प्रभु ने अपने अनुज नरहरि एवं अग्रज हनुमंत के साथ मिलकर अपना त्रिगुणरूप (किंबहुना तीन गुना रूप) प्रगट किया, वास्तव में ये तीनों भी एकरूप हैं, उनमें भेद नहीं है। वह प्रभु अपने भक्तों के यश को, कीर्ति को, प्रताप को वृद्धिंगत कर उन्हें सदैव विजयी बनाता है। वह प्रभु अपनी लीलाओं में अमृत (उपदेश-बोध) मिलाकर बना रसायन अपने उन भक्तों को चखाता है, जो इस दृश्य संसार को निस्सार समझते हुए उसके नाम का सफल उच्चार करते हैं और हमारा गण, गोत्र, सखा, कुलदेव, इष्टदेव आदि सब कुछ प्रभु ही है ऐसा दृढ़तापूर्वक जानते और मानते हैं। (इस चरण में प्रभु के आधिदैविकरूप का व्याख्यान हुआ है।)॥2॥
उस प्रभु का नाम योगियों का विश्रामधाम है, अर्थात् जिस नाम की माधुरी में योगीजन निमग्न रहते हैं, वह नाम आत्मप्रियधाम (आत्मा के प्रियतम स्वरूप) का साक्षात्कार करवाकर सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य इन चारों प्रकार की मुक्तियों को प्रदान करता है। उस प्रभु ने माणिकनगर क्षेत्र की स्थापना कर सभी मतों का उद्धार किया। वह प्रभु गुरुओं का सम्राट है, उसके तेज और गुण की उपमा किसी से भी नहीं दी जा सकती (अमुप), वह अपने भक्तों को अपने मनोहर रूप का दर्शन करवाता है, उसके चरणों के स्पर्श से वैकुंठपुरी और काशी भी धन्य हो जाती हैं। वह आनंदरूप है, अचल है, निस्पंद है, महासुख का मूल है, आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन तीनों तापों को हरनेवाला है, वह अज, अव्यय और घन (ब्रह्म) होते हुए भी दृश्यरूप में अपने कुल का दीपक (मनोहर नाईक का पुत्र माणिकप्रभु) है, उस प्रभु को हम नमस्कार करते हैं। हे प्रभु, तुम अपना ज्ञानरूप मार्तंड के सामने प्रगट करो, अथवा हे ज्ञान के सूर्य (मार्तंड) तुम अपना निजरूप प्रगट करो, विश्व में जो अज्ञान और शोक दिखाई देता है, उसका लोप कर दो - उसे दूर कर दो, अपने भक्तों को सच्चिदानंद पद की प्राप्ति करवा दो। अच्युत आत्मरूप में स्थित होकर, अपनी प्रज्ञा को स्थिर कर - स्थितप्रज्ञ बनकर, जो भक्त इस पद की गर्जना करेंगे, उनकी जो भी प्रतिज्ञा होगी, जो भी संकल्प होगा वे सब श्रीगुरु की आज्ञा (अनुमोदन) बनकर प्रलद्रूप होंगे। (इस चरण में प्रभु के आधिभौतिकरूप का व्याख्यान हुआ है।)॥3॥
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