शनि पर्वत मुरैना की कथा
हनुमान को शनि ने दिलाई थी विजय
अगर त्रेता युग में शनि महाराज हनुमान जी की सहायता नहीं करते तो भगवान राम कभी भी लंका पर विजय नहीं पा सकते थे। मुरैना जिले के ऐंती ग्राम में स्थित शनि देव का विश्वभर में इकलौता तथा प्राचीन मंदिर इसका गवाह है।
लंका में जब राक्षसों ने हनुमान जी की पूंछ में आग लगाई और उन्होंने लंका दहन करने का प्रयास किया था तो वे सफल नहीं हो सके। हनुमान जी ने योग शक्ति से लंका दहन न होने का कारण जाना तो पता चला कि उनके प्रिय सखा शनिदेव लंकाधिपति के पैरों के आसन बने हुए हैं। उन्हीं के प्रभाव से लंका में आग नहीं लग पा रही है।
हनुमान जी ने अपने बुद्धिचातुर्य से काम लेते हुए शनिदेव को रावण के पैरों के नीचे से मुक्त कराया और तुरंत लंका छोड़ने को कहा। पिछले कई वर्षों से रावण के पैरों का आसन बने रहने से शनिदेव इतने दुर्बल हो गए थे कि वे लंकाधिपति की कैद से मुक्त होने के कुछ ही दूरी चलने पर थक गए और लंका से बाहर निकलने में हनुमान जी से असमर्थता जाहिर की। शनिदेव ने बताया कि वे जब तक लंका में रहेंगे तब तक इसका दहन होना असंभव है और वो इस समय इतने कमजोर हो चुके हैं कि तुरंत लंका को नहीं छोड़ सकते।
हनुमान जी उस समय काफी मानसिक परेशानियों से घिर गए।
शनिदेव ने उनसे कहा, हनुमान जी आप बहुत बलशाली हैं। आप मुझे पूरी ताकत से भारत भूमि की ओर फैंको तो मैं कुछ ही पल में लंका से दूर हो जाऊंगा तब आप लंका दहन कर सकते हो। हनुमान जी ने ऐसा ही किया और शनिदेव को पूरे वेग से फेंका। शनिदेव मुरैना जिले के ऐंती ग्राम के पास स्थित एक पर्वत पर गिरे जिसे शनि पर्वत कहा जाता है।
शास्त्रों में वर्णित है कि शनि पर्वत पर ही शनिदेव ने घोर तपस्या कर अपनी शक्तियों एवं बल को पुनः प्राप्त किया। शनि पर्वत पर शनिदेव महाराज की प्रतिमा की स्थापना चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने कराई थी। पुरातत्व विभाग ने इसकी पुष्टि की है। विक्रमादित्य के समय ही शनिदेव की प्रतिमा के सामने उन्होंने हनुमान जी की मूर्ति लगवाई थी शनिदेव हनुमान जी की यह प्रतिमाएं विश्व में इकलौती तथा दुर्लभ हैं।
यह कथा मंदिर में लगे शिलालेख से ली गई है।
|| प्रचलित नाम: शनि पर्वत, शनिचरा मंदिर मुरैना, शनि मंदिर मुरैना, शनिचरा मंदिर ग्वालियर ||
मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के ऐंती ग्राम के निकट शनि पर्वत पर स्थित शनिचरा मंदिर शनिदेव महाराज की तपोभूमि है। शनि पर्वत का उल्लेख त्रेता युग से ही मिलता है। परंतु मंदिर एवं मूर्ति की स्थापना चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने कराई थी। इसके उपरांत शनि देव की महिमा एवं चमत्कारों से प्रभावित होकर ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा दौलतराव सिंधिया ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
मंदिर में शनि महाराज की तांत्रिक रूप में तपस्या लीन भेष-भूषा में हैं, जिसके अंतर्गत यग्योपवीत, हृदय मे नीलमणि, रुद्राक्ष माला, एक हाथ में सुमिरनी तथा दूसरे हाथ में दंड धारण किए हुए है।
17वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के सिगनापुर शनि मंदिर में प्रतिष्ठित शनि शिला को इसी शनि पर्वत से ले जाकर प्रतिष्ठित किया गया था। यह मंदिर तांत्रिक गतिविधियों के अनुसार अत्यंत सिद्ध मंदिर है। शनि जयंती पर मंदिर में विशाल मेला लगता है जिसके अंतर्गत दर्शन हेतु लाखों भक्त मंदिर पधारते हैं। मंदिर दर्शन के उपरांत भक्तों द्वारा मंदिर परिक्रमा की महिमा है।
मंदिर प्रांगण में एक छोटा सा पौराणिक पवित्र जल कुंड है, जिसे गुप्त गंगा धारा के नाम से जाना जाता है। जिसमें हर समय जल देखा जासकता है जबकि मंदिर एक बीहड़ क्षेत्र में स्थापित है। मंदिर में अत्यंत प्राचीन त्यागी आश्रम स्थित है। मंदिर के निकट लेटे हनुमान अथवा पौडे हनुमान जी का मंदिर भी स्थिर है।
वैसे तो मंदिर मुरैना जिले में स्थित है परंतु ग्वालियर के निकट होने के कारण बहुत से भक्त इसे ग्वालियर के शनि मंदिर के नाम से भी जानते हैं। मंदिर के आस-पास पार्किंग की अच्छी सुविधा है, यह सुविधा मेले के समय अधिक जन-सैलाव होने के कारण कुछ कम होसकती है। मंदिर के बाहर प्रसाद एवं खाने-पीने की पर्याप्त दुकानों की व्यवस्था है।
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